सामने हो कर भी कब सब पर अयाँ होते हैं लोग जो नज़र आते हैं वैसे ही कहाँ होते हैं लोग छाप से माहौल की बचना बहुत दुश्वार है अपने गिर्द-ओ-पेश ही के तर्जुमाँ होते हैं लोग पस्तियों में भी नज़र आते हैं अज़्मत के निशाँ ख़ाक पर रहते हुए भी आसमाँ होते हैं लोग क़ाफ़िला सालार जब होते हैं उफ़ वो साअ'तें हाए वो लम्हा कि जब बे-कारवाँ होते हैं लोग ज़ुल्म पर बाँधें कमर तो अल-अमान-ओ-अल-हफ़ीज़ मिस्ल-ए-चंगेज़ इक बला-ए-बे-अमाँ होते हैं लोग मेहरबाँ हो जाएँ तो रंज-ओ-अलम की धूप में पेड़ की सूरत घनेरा साएबाँ होते हैं लोग नक़्श-ए-पा तक भी नहीं मिलते कहीं उन के 'नईम' देखते ही देखते यूँ बे-निशाँ होते हैं लोग