सामने आइना था मस्ती थी उन पर इक शान-ए-ख़ुद-परस्ती थी मुझ को का'बे में भी हमेशा शैख़ याद-ए-अय्याम-ए-बुत-परस्ती थी सिर्फ़ दिल ही नहीं जला मेरा ज़र्रे ज़र्रे में उस के बस्ती थी क्यूँ ज़ुलेख़ा तिरी अदालत में हुस्न की जिंस ऐसी सस्ती थी सूझता था न इंतिज़ार में कुछ देखने को निगह तरसती थी देखने हम गए थे क़ब्र-ए-'अज़ीज़' हाए क्या बेकसी बरसती थी