सामने जो कहा नहीं होता तुम से कोई गिला नहीं होता जो ख़फ़ा है ख़फ़ा नहीं होता हम ने गर सच कहा नहीं होता इस में जो एकता नहीं होती घर ये हरगिज़ बचा नहीं होता जानता किस तरह कि क्या है ग़ुरूर वो जो उठकर गिरा नहीं होता नाव क्यूँ उस के हाथों सौंपी थी नाख़ुदा तो ख़ुदा नहीं होता तप नहीं सकता दुख की आँच में जो ख़ूद से वो आश्ना नहीं होता प्रेम ख़ुद सा करे न जो सब से फिर वो 'दरवेश' सा नहीं होता