सामने कोई भी मंज़र न समाँ होता है दिल सुलगता है तो आँखों में धुआँ होता है जाने किस शहर की धरती पे क़दम है अपना अपने होने पे न होने का गुमाँ होता है ज़िंदगी शहद से शीरीं है तो ज़हराब भी है इस का एहसास मगर सब को कहाँ होता है कभी ख़ुर्शीद पे होता है गुमाँ ज़र्रे का कोई ज़र्रा कभी ख़ुर्शीद-निशाँ होता है जादा-ए-फ़हम-ओ-फ़रासत में भी मिलते हैं सराब हर यक़ीं मंज़िल-ए-सद-वहम-ओ-गुमाँ होता है पत्थरों से है शिकायत न तो राहों से गिला ठोकरें खा के मिरा अज़्म जवाँ होता है दिल कुछ इस तौर है मानूस ग़म-ए-हस्ती से ऐश का इस पे तसव्वुर भी गिराँ होता है मेरा माज़ी है सुलगते हुए सहरा की तरह सैल-ए-अश्क आँखों से यूँ ही न रवाँ होता है चोट जब पड़ती है फ़नकार के दिल पर 'जौहर' दर्द सूरत-गर-ए-इज़हारबयाँ होता है