सामने उस बुत के जब जाना पड़ा कुफ़्र पर ईमाँ मुझे लाना पड़ा बहर-ए-दरमाँ उन को जब आना पड़ा दर्द-ए-दिल को और बढ़ जाना पड़ा फिर भी कब समझा फ़रेब-ए-हुस्न को दिल को लाखों बार समझाना पड़ा जीते जी दीदार-ए-जानाँ था मुहाल ज़िंदगी में मुझ को मर जाना पड़ा कू-ए-जानाँ कूचा-ए-जानाँ था फिर जन्नत-ए-वाइ'ज़ को ठुकराना पड़ा हो चुका नज़राना जब दिल हुस्न का फिर जिगर को सामने लाना पड़ा ज़िंदगी में जब न 'अफ़्क़र' आए वो ज़िंदगी को मौत बन जाना पड़ा