समुंदर इस क़दर शोरीदा-सर क्यूँ लग रहा है किनारे पर भी हम को इतना डर क्यूँ लग रहा है वो जिस की जुरअत-ए-पर्वाज़ के चर्चे बहुत थे वही ताइर हमें बे-बाल-ओ-पर क्यूँ लग रहा है वो जिस के नाम से रौशन थे मुस्तक़बिल के सब ख़्वाब वही चेहरा हमें ना-मो'तबर क्यूँ लग रहा है बहारें जिस की शाख़ों से गवाही माँगती थीं वही मौसम हमें अब बे-समर क्यूँ लग रहा है दर-ओ-दीवार इतने अजनबी क्यूँ लग रहे हैं ख़ुद अपने घर में आख़िर इतना डर क्यूँ लग रहा है