सानेहा नहीं टलता सानेहे पे रोने से हब्स-ए-जाँ न कम होगा बे-लिबास होने से अब तो मेरा दुश्मन भी मेरी तरह रोता है कुछ गिले तो कम होंगे साथ साथ रोने से मत्न-ए-ज़ीस्त तो सारा बे-नुमूद लगता है दर्द-ए-बे-निहायत का हाशिया न होने से सच्चे शे'र का खलियान और भरता जाता है दर्द की ज़मीनों में ग़म की फ़स्ल बोने से हादसात-ए-पैहम का ये मआल है शायद कुछ सुकून मिलता है अब सुकून खोने से