सानेहा रोज़ नया हो तो ग़ज़ल क्या कहिए हर तरफ़ हश्र बपा हो तो ग़ज़ल क्या कहिए बरबरिय्यत पे ही क़दग़न है न सफ़्फ़ाकी पर रक़्स-ए-इबलीस रवा हो तो ग़ज़ल क्या कहिए तीर-ए-बाराँ मेरे पिंदार पे हैं अहल-ए-जफ़ा इज़्ज़त-ए-नफ़्स फ़ना हो तो ग़ज़ल क्या कहिए बोलना भी यहाँ दुश्वार है चुप रहना भी क़ुफ़्ल होंटों पे लगा हो तो ग़ज़ल क्या कहिए एक नासूर सा है दिल की जगह सीने में ज़ख़्म अंदर से हरा हो तो ग़ज़ल क्या कहिए भूक ने तल्ख़ियाँ भर दी हैं लब-ओ-लहजे में ज़हर फ़ाक़ों में घुला हो तो ग़ज़ल क्या कहिए दम ग़रीबी में निकलता न ठहरता है 'रबाब' ज़िंदगी सर्द चिता हो तो ग़ज़ल क्या कहिए