संग-ए-तिफ़्लाँ का हदफ़ जिस्म हमारा निकला हम तो जिस शहर गए शहर तुम्हारा निकला किस से उम्मीद करें कोई इलाज-ए-दिल की चारागर भी तो बहुत दर्द का मारा निकला जाने मुद्दत पे तिरी याद किधर से आई राख के ढेर में पोशीदा शरारा निकला दिल पे क्या जाने गुज़र जाती है क्या पिछले-पहर ओस टपकी तो कहीं सुब्ह का तारा निकला जाते जाते दिया इस तरह दिलासा उस ने बीच दरिया में कोई जैसे किनारा निकला कोई सहरा का हवाला न समुंदर की मिसाल जो भी डूबा है जहाँ दोस्त हमारा निकला बुल-हवस ज़िद में सही दार-ओ-रसन से गुज़रा अब पशेमाँ है कि सौदा ये ख़सारा निकला