संग-ज़नों के वास्ते फिर नए रास्तों में है वहशत-ए-जाँ का मसअला शीशे के जंगलों में है उतरी थीं दश्त पर कभी बर्ग-ओ-समर वो आहटें क़हत-ए-सदा-ए-दोस्ताँ फिर से समाअतों में है जिन में निहाँ रहा कभी निकहत-ओ-गुल की क़ुर्बतें हद-ए-ज़मीन-ओ-आसमाँ अब इन्ही राबतों में है किसी ने ज़मीं के जिस्म से फ़स्ल-ए-विसाल छीन ली अर्सा-ए-हश्र सा बपा रूह की खेतियों में है दिल से लहू के शोर तक ज़ख़्म का सिलसिला रवाँ शोरिश-ए-बहर-ए-बे-कराँ आज से फिर रगों में है आलम-ए-बे-हिजाबी-ए-जाँ का समाँ कुछ और था हर बुन-ए-मू का हर्फ़-ए-दिल यूँ तो खुला लबों में है तारे से सम्त भी अलग नाव से राह भी जुदा रम्ज़-ए-मुसाफ़िरत छुपा चुप के समुंदरों में है