सपनों की धारा में बहता रहता हूँ शब्दों के आकार बदलता रहता हूँ हाल से मुस्तक़बिल से आँखें बंद किए माज़ी की दहलीज़ पे सोता रहता हूँ उन से तेरी शक्ल नहीं मिलती फिर भी फूलों से दिन-रात झगड़ता रहता हूँ बाहर घुप अँधियारा गूँगे बहरे लोग अपने आप से बातें करता रहता हूँ मैं हूँ सर से पा तक ज़हर-भरा 'सागर' ख़ुद ही अपने जिस्म को डसता रहता हूँ