सर-ए-राह कोई मुझे मिला कि नक़ाब रुख़ से उठा दिया इक अजीब शो'ला-ए-हुस्न था दिल-ओ-जाँ में आग लगा दिया वो तड़पता मुझ को यूँ छोड़ कर मुझे हैरतों में वो डाल कर वो किधर से आया कहाँ गया न तो नाम और न पता दिया है रगों में ख़ून या आग है ये अजीब तरह की लाग है वो ज़बाँ पे इश्क़ का राग है कि जो साज़-ए-दिल ने सिखा दिया मिरे दिल का जल गया आशियाँ मिरी चश्म-ए-नम है धुआँ धुआँ उसे ढूँढता हूँ यहाँ वहाँ मिरे दिल को जिस ने जला दिया शब-ओ-रोज़ उस का हुज़ूर है जो सरापा नूर ही नूर है इक अजीब कैफ़-ओ-सुरूर है कि नज़र का जाम पिला दिया हुआ जब भी वो मिरे रू-ब-रू मिरी आँखें करने लगीं वुज़ू तभी चश्म-ए-'साजिद'-ए-कम-नज़र से हिजाब सारे उठा दिया