सर काट के कर दीजिए क़ातिल के हवाले हिम्मत मिरी कहती है कि एहसान-ए-बला ले हर क़तरा-ए-ख़ूँ सोज़-ए-दरूँ से है इक अख़गर जल्लाद की तलवार में पड़ जाएँगे छाले नादान न हो अक़्ल अता की है ख़ुदा ने यूसुफ़ की तरह तुम को कोई बेच न डाले हस्ती की असीरी से शरर से हैं सिवा तंग छूटे तो इधर फिर के नहीं देखने वाले सालिक को यही जादे से आवाज़ है आती पामाल जो हो राह वो मंज़िल की निकाले सय्याद चमन ही में करे मुर्ग़-ए-चमन ज़ब्ह लबरेज़ लहू से ही दरख़्तों के हों थाले