सर किया ज़ुल्फ़ की शब को तो सहर तक पहुँचे वर्ना हम लोग कहाँ हुस्न-ए-नज़र तक पहुँचे आज पलकों पे मिरी जश्न-ए-चराग़ाँ होगा कितने अनमोल गुहर दीदा-ए-तर तक पहुँचे मेरी रातों का अंधेरा भी दुआएँ देगा इक सितारा जो उतर कर मिरे घर तक पहुँचे कौन कहता है कि ख़ुर्शीद उतर कर आए एक जुगनू ही मगर ख़ाक-बसर तक पहुँचे जो भी आए तिरे कूचे में वो जाँ से गुज़रे सर हथेली पे उठाए तिरे दर तक पहुँचे है उसी साहिब-ए-मेराज का एहसान कि हम ख़ाक हो कर भी मगर शम्स-ओ-क़मर तक पहुँचे मैं अँधेरों का मुसाफ़िर हूँ उजालों का नक़ीब किस की जुरअत है मिरी गर्द-ए-सफ़र तक पहुँचे उँगलियाँ पहले क़लम करना पड़ेंगी 'बाबर' फिर ये मुमकिन है क़लम हर्फ़-ए-हुनर तक पहुँचे