सर उठा कर न कभी देखा कहाँ बैठे थे गिरती दीवार का साया था जहाँ बैठे थे सब थे मसरूफ़ अँधेरों की ख़रीदारी में हम सजाए हुए शम्ओं' की दुकाँ बैठे थे यही शोहरत का सबब होंगे ये मा'लूम न था हम छुपाए हुए ज़ख़्मों के निशाँ बैठे थे लोग तो बुझते चराग़ों के धुएँ से ख़ुश थे हम ही बे-कार जलाए हुए जाँ बैठे थे मय-कदा और भी तन्हाई का सामाँ निकला हम कि तन्हाई से तंग आ के यहाँ बैठे थे