सारा आलम तिरी ख़ल्वत में गँवा बैठे हैं अक्स हम आँख की हैरत में गँवा बैठे हैं अब किसी और सफ़र के लिए क़ाइल न करो ज़िंदगी सारी मसाफ़त में गँवा बैठे हैं एक धड़का ही रहा तुझ से बिछड़ जाने का वस्ल को वस्ल की हालत में गँवा बैठे हैं दश्त-ए-इम्कान में हर सू हैं बगूले उठते दिल-ए-वहशी तुझे वहशत में गँवा बैठे हैं तुझ से तो क़र्ज़-ए-तमन्ना भी अदा हो न सका नक़द-ए-दिल तेरी ज़रूरत में गँवा बैठे हैं चंद यादों को पस-अंदाज़ किया था लेकिन ख़ुद-फ़रामोशी की आदत में गँवा बैठे हैं