सारा पेड़ हरा था उस में एक ही पत्ता पीला था मन-पीपल को धूप में देखा दर्द बड़ा चमकीला था उस की मस्ती उस की बातों का मैं ज़िम्मा-दार नहीं मैं कुछ ऐसा शोख़ नहीं था वो ही थोड़ा नशीला था पूरे चाँद से बरसा जादू जिस्म नहीं दो साए थे हद्द-ए-नज़र तक नक़्श-ए-क़दम थे या फिर रेत का टीला था रफ़्ता-रफ़्ता मिट ही गया ख़ुद उस की बे-रहमी का दाग़ यादों के रौशन चेहरे पर एक निशाँ जो नीला था आँखों को मालूम नहीं था कितने झरने नीर बहे सुब्ह को ये एहसास हुआ कि पूरा तकिया गीला था जिस के लम्स-ए-तमन्ना पर पूरा ईमाँ था पूरा यक़ीन कल जब उस से मरहम माँगा उस का लहजा कटीला था आज भी मेरे मन के अंदर कोई बालक रहता है तुम ने देखा उस के आगे आज भी मैं शर्मीला था