सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना ज़रा सी धूप भी इस साएबाँ में रख देना तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की मुझे भी तीर की सूरत कमाँ में रख देना शिकस्त खाए हुए हौसलों का लश्कर हूँ उठा के मुझ को सफ़-ए-दुश्मनाँ में रख देना जदीद नस्लों की ख़ातिर ये वरसा काफ़ी है मिरे यक़ीं को हिसार-ए-गुमाँ में रख देना ये मौज ता-कि सफ़ीने को गर्म-रौ रक्खे कुछ आग ख़ेमा-ए-आब-ए-रवाँ में रख देना बहुत तवील है काले समुंदरों का सफ़र मुझे हवा की जगह बादबाँ में रख देना मैं अपने ज़िम्मे किसी का हिसाब क्यूँ रक्खूँ जो नफ़ा है उसे जेब-ए-ज़ियाँ में रख देना