सारे चक़माक़-बदन आया था तय्यारी से रौशनी ख़ूब हुई रात की चिंगारी से उन दरख़्तों की उदासी पे तरस आता है लकड़ियाँ रंग न दूँ आग की पिचकारी से कोई दावा भी नहीं करता मसीहाई का हम भी आज़ाद हुए जाते हैं बीमारी से मुँह लगाया ही नहीं असलहा-साज़ों को कभी मैं ने दुनिया को हराया भी तो दिलदारी से इश्क़ भी लोग नुमाइश के लिए करते हैं क्या नमाज़ें भी पढ़ी जाती हैं अय्यारी से सारा बाज़ार चला आया है घर में फिर भी बाज़ आते हैं कहाँ लोग ख़रीदारी से आख़िरी नींद से पहले कहाँ समझेंगे हम ख़्वाब से डरना ज़रूरी है कि बेदारी से हुस्न जिस छाँव में बैठा था वो क़ातिल तो न थी जल गए जिस्म निगाहों की शजर-कारी से कम-से-कम मैं तो मुरीद उन का नहीं हो सकता जो पस-ए-रक़स-ए-जुनूँ बैठे हैं हुश्यारी से