सारे मामूलात में इक ताज़ा गर्दिश चाहिए नम ज़मीं पर ख़ुश्क मौसम की नवाज़िश चाहिए शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी ज़िंदा रहना हो तो क़ातिल की सिफ़ारिश चाहिए मेरी मुश्किल भागते लम्हों को पकड़ूँ किस तरह ज़िद उसे अन-देखे ख़्वाबों की नुमाइश चाहिए भेजता मैं किस को सुब्हों की कुँवारी रौशनी उस को बूढ़ी रात के रंगों की ताबिश चाहिए सूखते अल्फ़ाज़ के मौसम में हर्फ़-ए-तर हूँ मैं फिर सज़ा पहले समाअत की नवाज़िश चाहिए जो हमारा था वो निकला आफ़्ताबों का हलीफ़ किस ख़ुदा से अब कहा जाए कि बारिश चाहिए बारयाबी शर्त-ए-ख़ामोशी पे है वो इस तरह पहले ही तफ़्सील-ए-अहवाल-ए-गुज़ारिश चाहिए बुज़-दिली मेरी थी जो 'मंज़ूर' मैं ज़ख़्मी हुआ वो सिपर-बरदार थे उन की सताइश चाहिए