सर-ए-बज़्म-ए-तलब रक़्स-ए-शरर होने से डरती हूँ

सर-ए-बज़्म-ए-तलब रक़्स-ए-शरर होने से डरती हूँ
कि मैं ख़ुद पर मोहब्बत की नज़र होने से डरती हूँ

बचाना चाहती हूँ उस को सूरज की तमाज़त से
मगर मैं उस के रस्ते का शजर होने से डरती हूँ

कभी उस के ख़यालों में नहीं जाती थी दरिया पर
और अब ये वक़्त आया है कि घर होने से डरती हूँ

अगर ये सच है ख़ुश्बू और मोहब्बत छुप नहीं सकते
तो क्यूँ अपनी मोहब्बत की ख़बर होने से डरती हूँ

मैं अपनी ज़ात में भीगे परों का बोझ हूँ शायद
किसी बे-बाल-ओ-पर के बाल-ओ-पर होने से डरती हूँ

मुझे दुश्मन का भी दिल तोड़ना अच्छा नहीं लगता
किसी की बद-दुआओं का असर होने से डरती हूँ

भला तश्बीह से रुत्बा मिरा क्यूँ कम करे कोई
'क़मर' हूँ इस लिए रश्क-ए-क़मर होने से डरती हूँ


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