सर-ए-दीवार चुनवाई गई हूँ कभी हीरों में तुलवाई गई हूँ मैं औरत थी शरीक-ए-तख़्त कब थी सो मलिका कह के बुलवाई गई हूँ मिरे पैकर का था पैहम तक़ाज़ा मैं हर इक गाम बहकाई गई हूँ मुक़द्दस हैं सभी रिश्ते जो मेरे तो क्यूँ बाज़ार में लाई गई हूँ मिरी हर सोच पर पहरे लगे हैं कहाँ ज़ी-अक़्ल कहलाई गई हूँ बना कर आइना 'अफ़रोज़' 'रिज़वी' हदफ़ पत्थर का ठहराई गई हूँ