सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की वाह क्या ख़ूब ज़िंदगानी की अपनी बीती अगर मैं तुझ से कहूँ बात निबड़े न इस कहानी की तेरे दाग़ों की ऐ ग़म-ए-उल्फ़त ख़ूब हम ने भी बाग़बानी की जूँ निगह दिल गया है आँखों की राह गरचे हम ने निगाहबानी की किस के हाँ तुम करम नहीं करते कभू ईधर न मेहरबानी की अपने नज़दीक दर्द-ए-दिल मैं कहा तेरे नज़दीक क़िस्सा-ख़्वानी की हर्ज़ा-गोई से मुझ को दी है नजात हैगी मिन्नत ये बे-ज़बानी की नहीं ताक़त कि दम निकाल सकूँ अब ये नौबत है ना-तवानी की 'असर' इस हाल पे भी जीता है क्या कहूँ उस की सख़्त-जानी की