सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं मुख़्तसर सी बात को इक दास्ताँ समझा था मैं बन गई मेरे लिए इक इज़्तिराब-ए-मुस्तक़िल जिस मोहब्बत को सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ समझा था मैं वो भी मेरी गर्दिश-ए-तक़दीर का इक दौर था जिस को अब तक इंक़िलाब-ए-आसमाँ समझा था मैं वो तो ये कहिए मोहब्बत ने ही आँखें खोल दीं ज़िंदगी को वर्ना इक राज़-ए-निहाँ समझा था मैं रश्क रह रह कर न क्यूँ आए नसीब-ए-ग़ैर पर वो उसी महफ़िल में शामिल थे जहाँ समझा था मैं था हरम की सरज़मीं पर लुत्फ़-अंदोज़-ए-सुजूद या'नी का'बे को तुम्हारा आस्ताँ समझा था मैं वादी-ए-ग़ुर्बत में यूँ गुम-कर्दा मंज़िल था 'शकील' रहज़न-ए-मंज़िल को ख़िज़्र-ए-कारवाँ समझा था मैं