सरहद-ए-जल्वा से जो आगे निकल जाएगी वो नज़र जुर्म-रसाई की सज़ा पाएगी चश्म-ए-साक़ी न कहीं अपना भरम खो बैठे और कब तक ये मिरी प्यास को बहलाएगी जो नज़र गुज़री है तपते हुए नज़्ज़ारों से क्या तसव्वुर की घनी छाँव में सो जाएगी क्यूँ रहें शहर भी फ़ैज़ान-ए-जुनूँ से महरूम अक़्ल दीवानों पे पत्थर ही तो बरसाएगी है ख़िज़ाँ मौसम-ए-अफ़्सुर्दा-निगाही का नाम बुझ गया शौक़ तो हर शाख़ झुलस जाएगी