सर-सर गेसू हिला रही है सर पर काले खिला रही है फ़ुर्क़त में ख़ूँ रुला रही है तक़दीर ये रंग ला रही है दाग़ों से दिल जला रही है उल्फ़त सिक्के बिठा रही है दामन में है तेरे बू-ए-काकुल क्यूँ मुझ को सबा उड़ा रही है हाल-ए-तप-ए-हिज्र कुछ न पूछो दिल खा चुकी जान खा रही है झेली हुई है जफ़ा तबीअ'त बरसों ही मुब्तला रही है किसरा महल न ताक़-ए-जम है ऐ दिल किस की सदा रही है मरता है दिल बुतों के ऊपर तक़दीर पहाड़ ढा रही है तिफ़ली-ओ-जवानी ख़ूब गुज़री दो दिन अच्छी हवा रही है उड़ती है ख़ाक उस जगह पर बरसों जिस जा फ़ज़ा रही है ये बिन्त-ए-इनब बहार-ए-गुल में यारों की भी आश्ना रही है लाती नहीं बू-ए-यार निगहत उस दिल की लगी बुझा रही है हम भी थे कभी जवान राना अपनी भी कभी हवा रही है खुलता नहीं हाल गुल का बुलबुल शबनम पानी चुआ रही है ये फ़स्ल-ए-बहार बे-ख़ुदी का रस्ता हम को बता रही है गुलशन में उरूस-ए-गुल के ऊपर शबनम मोती लुटा रही है फूले नहीं गुल चमन के अंदर वहशत आँखें दिखा रही है फ़िक़रे से ले आए उस सनम को क्यूँ 'मुंतही' बात क्या रही है