साँस रोके रहो लो फिर वो सदा आती है जिस को तरसें कई सदियाँ तो सुनी जाती है कोई पहचान वही फाँस बनी है कि जो थी अज्नबिय्यत वही हर साँस में शरमाती है हाथ फैलाए हुए माँग रही है क्या रात क्यूँ अंधेरों में हवा रोए चली जाती है मौत की नींद मगर अब के ज़रूर उचटी है वर्ना हम ऐसों को झपकी सी कहाँ आती है बात करता हूँ मैं सब की ये गुमाँ कैसे है मेरा हर सानेहा मेरा है बहुत ज़ाती है कैफ़ियत सी ये मगर क्या है हमारे जी की जैसे रफ़्तार कि रफ़्तार से टकराती है अपना-पन भी है वही और वही खोया-पन 'तल्ख़' तू आज भी पहले सा ही जज़्बाती है