साथ दरिया के हम भी जाएँ क्या ज़ोर-लहरों का आज़माएँ क्या पेड़ सारे उजड़ चुके कब के शोर करती हैं फिर हवाएँ क्या कब वो गुज़रेगी इस ख़राबे से फ़स्ल-ए-गुल से ये पूछ आएँ किया फूल बाग़ों में जब नहीं खिलते फूल गमलों में हम खिलाएँ क्या रात जंगल की शहर में आई घर चराग़ों से जगमगाईं क्या जो ख़ुदा है कभी तो सोचे वो एक दुनिया नई बनाईं क्या ख़ौफ़ कैसा है शाम से 'फ़िक्री' आज उतरेंगी फिर बुलाएँ क्या