ज़मीं की वुसअ'तों से आसमाँ तक कहानी अपनी जा पहुँची कहाँ तक लगी थी आग जो सेहन-ए-चमन में वो आ पहुँची हमारे आशियाँ तक बता दे हम को इतना राहबर अब भटकना है हमें आख़िर कहाँ तक किसी के हुस्न का वो रो'ब तौबा शिकायत रह गई आ कर ज़बाँ तक चली थी बात मेरी दास्ताँ से वो आ पहुँची तुम्हारी दास्ताँ तक जो गुज़री है हमारी ज़िंदगी पर न जाए वो हमारे कारवाँ तक हदीस-ए-ज़िंदगी 'जाँबाज़' छेड़ो हदीस-ए-शो'ला-ओ-शबनम कहाँ तक