सौ उलझनों के बीच गुज़ारा गया मुझे जब भी तिरी तलब में सँवारा गया मुझे कम हो सका न फिर भी मिरा मर्तबा अगर पस्ती में आसमाँ से उतारा गया मुझे सुलझी न एक बार कहीं ज़ुल्फ़-ए-ज़िंदगी गरचे हज़ार बार सँवारा गया मुझे अपने मफ़ाद के लिए मैदान-ए-जंग में जीता गया कभी कभी हारा गया मुझे धोया गया बदन मिरा अश्कों के आब से मेरे लहू के साथ निखारा गया मुझे फिर भी रवाँ-दवाँ हूँ मैं मौज-ए-हयात में सौ बार गरचे दहर में मारा गया मुझे रख कर चलूँगा जान हथेली पे मैं 'नबील' मक़्तल से जिस घड़ी भी पुकारा गया मुझे