सवाद-ए-शहर से अग़माज़ करना चाहता हूँ कि मैं अपना सफ़र आग़ाज़ करना चाहता हूँ ख़जिल हूँगा मता-ए-इश्क़ पर शायद किसी दिन अभी इस फ़ैसले पर नाज़ करना चाहता हूँ रग-ए-जाँ से भी जो नज़दीक आता जा रहा है मैं क्या सच-मुच उसे हमराज़ करना चाहता हूँ उलटना चाहता हूँ आज माज़ी के वरक़ मैं कि फ़र्दा का दरीचा बाज़ करना चाहता हूँ किसी के सामने रक्खे हुए इक आइने को मैं अपनी रूह का ग़म्माज़ करना चाहता हूँ परिंदों को ज़रा सी देर चुप रहने का कह कर हवा को ज़मज़मा-पर्दाज़ करना चाहता हूँ मनाना चाहता हूँ रूठने वालों को 'साजिद' मगर इक शख़्स को नाराज़ करना चाहता हूँ