सवेरा हो भी चुका और रात बाक़ी है ज़रूर दिल में अभी कोई बात बाक़ी है ये लोग किस क़दर आराम से हैं बैठे हुए अगरचे होने को इक वारदात बाक़ी है कुछ और ज़ख़्म-ए-मोहब्बत में बढ़ गई है कसक ये सोच कर कि अभी तो हयात बाक़ी है ये ग़म जुदा है बहुत जल्द-बाज़ थे हम तुम ये दुख अलग है अभी काएनात बाक़ी है जो मेरी तेरी मुलाक़ात का सबब था कभी वो लम्हा तेरे बिछड़ने के साथ बाक़ी है तमाम बेड़ियाँ तो काट डाली हैं लेकिन 'जमाल' क़ैद-ए-नफ़स से नजात बाक़ी है