सय्यारगाँ की शब में ज़मीं सा दिया तो है ये ख़ाक अजनबी सही रहने की जा तो है आवारगी का बोझ था इस ख़ाक पर बहुत लेकिन हज़ार शुक्र कि हम से उठा तो है ये अरसा-ए-हयात अगरचे है कम मगर पाँव किसी मक़ाम पर आ कर रुका तो है मा'लूम है मुझे कि तमाशा तो कुछ नहीं लेकिन हुजूम में कहीं तू भी खड़ा तो है गलियों का शोर-ओ-ग़ुल है मिरे साथ आज भी वो दिन गुज़र गए मगर आवाज़-ए-पा तो है वो रहगुज़र महकती है ख़ुश हूँ ये जान कर गर मैं नहीं तो क्या है कोई दूसरा तो है ये भी मआल-ए-ख़्वाहिश-ए-दिल है कि आज वो बादल को देख कर सही छत पर चढ़ा तो है आ जाएगा 'नवेद' वो इक रोज़ राह पर अच्छा है अपनी राह से भटका हुआ तो है