सीम-ओ-ज़र चाहे न अलमास-ओ-गुहर माँगे है दिल तो दरवेश है उल्फ़त की नज़र माँगे है जब ग़ज़ल मुझ से कोई मिस्रा-ए-तर माँगे है काविश-ए-फ़िक्र मिरा ख़ून-ए-जिगर माँगे है दिल को है आफ़ियत-ए-अंजुमन-ए-गुल की तलब ज़िंदगी दश्त-ए-मुग़ीलाँ का सफ़र माँगे है मुझ को ले जाए जो अनजाने दयारों की तरफ़ मेरी आवारा-मिज़ाजी वो डगर माँगे है अपने माहौल से हर शख़्स है माइल-ब-फ़रार कोई बेज़ार है घर से कोई घर माँगे है थे जो रंगीनी-ए-दामान-ए-नज़र का सामाँ दीदा-ए-शौक़ वही शाम-ओ-सहर माँगे है कल भी जाँ-बाज़ ही करते थे निगह-दारी-ए-हक़ ये जुनूँ आज भी नज़राना-ए-सर माँगे है हो जहाँ ऐब-शुमारी ही परख का मफ़्हूम साबिर उस शहर में क्या दाद-ए-हुनर माँगे है