शाख़ पर फूल खिल गए हैं ना तुम को पैग़ाम मिल गए हैं ना इक आवाज़-ए-हक़ उठी देखा और ऐवान हिल गए हैं ना वो तो मुँह में ज़बान रखते थे उन के भी होंट सिल गए हैं ना तुम नगीना समझ रहे थे उसे काँच से हाथ छिल गए हैं ना जो जहाँ है वहाँ नहीं मिलता लोग मरकज़ से हिल गए हैं ना