शाख़ों से लिपटता हुआ अज़दर नहीं देखा फूलों ने सर-ए-कूचा-ए-सरसर नहीं देखा बढ़ते ही गए राह-ए-शहादत के फ़लक पर घर छोड़ने वालों ने मुकर्रर नहीं देखा दरिया ने कई बार किनारे से सदा दी जाते हुए प्यासे ने पलट कर नहीं देखा देखी तो फ़क़त ताबिश-ए-असरार-ए-मशिय्यत सज्दे के तमन्नाई ने ख़ंजर नहीं देखा इक गुल ने तबस्सुम से जला दी सफ़-ए-आ'दा हुल्क़ूम पे चलता हुआ ख़ंजर नहीं देखा ख़ेमों में सिसकती हुई नमनाक हवा ने बीमार का जलता हुआ बिस्तर नहीं देखा