शाम अजीब शाम थी जिस में कोई उफ़क़ न था फूल भी कैसे फूल थे जिन को सुख़न का हक़ न था यार अजीब यार था जिस के हज़ार नाम थे शहर अजीब शहर था जिस में कोई तबक़ न था हाथ में सब के जिल्द थी जिस के अजीब रंग थे जिस पे अजीब नाम थे और कोई वरक़ न था जैसे अदम से आए हों लोग अजीब तरह के जिन का लहू सफ़ेद था जिन का कलेजा शक़ न था जिन के अजीब तौर थे जिन में कोई किरन न थी जिन के अजीब दर्स थे जिन में कोई सबक़ न था लोग कटे हुए इधर लोग पड़े हुए उधर जिन को कोई अलम न था जिन को कोई क़लक़ न था जिन का जिगर सिया हुआ जिन का लहू बुझा हुआ जिन का रफ़ू किया हुआ चेहरा बहुत अदक़ न था कैसा तिलिस्मी शहर था जिस के तुफ़ैल रात भी मेरे लहू में गर्द थी आईना-ए-शफ़क़ न था