शब ढले गुम्बद-ए-असरार में आ जाता है एक साया दर-ओ-दीवार में आ जाता है मैं अभी एक हवाले से उसे देखता हूँ दफ़अ'तन वो नए किरदार में आ जाता है यूँ शब-ए-हिज्र शब-ए-वस्ल में ढल जाती है कोई मुझ सा मिरी गुफ़्तार में आ जाता है मुझ सा दीवाना कोई है जो तिरे नाम के साथ रक़्स करता हुआ बाज़ार में आ जाता है जब वो करता है नए ढब से मिरी बात को रद्द लुत्फ़ कुछ और भी गुफ़्तार में आ जाता है देखना उस को भी पड़ता है मियाँ दुनिया में सामने जो यूँही बे-कार में आ जाता है एक दिन क़ैस से जा मिलता है वहशत के तुफ़ैल जो भी इस दश्त-ए-सुख़न-ज़ार में आ जाता है मैं कभी ख़ुद को अगर ढूँढना चाहूँ 'अहमद' दूसरा मा'रिज़-ए-इज़हार में आ जाता है