शब-ए-फ़िराक़ में मैं नाला-ओ-फ़ुग़ाँ करता तो सुन के सारा जहाँ शोर-ए-अल-अमाँ करता जहाँ में किस लिए मैं उल्फ़त-ए-बुताँ करता दो-रोज़ा उम्र को क्यों अपनी राएगाँ करता मैं आप अपने को करता ज़मीन का पैवंद जो याद सोहबत-ए-यारान-ए-रफ़्तगाँ करता कुनिश्त-ओ-दैर-ओ-हरम में न देखा जल्वा तिरा तुझे तलाश मिरी जान फिर कहाँ करता ज़रूर आँख में उन के भी अश्क भर आते जो उन से सदमा-ए-फ़ुर्क़त को मैं बयाँ करता जो होता दश्त-ए-जुनूँ में कभी गुज़र मेरा ज़रूर दामन-ए-सहरा भी धज्जियाँ करता झपकती ख़ंजर-ए-खूँ-ख़्वार से न आँख मिरी हज़ार मर्तबा क़ातिल जो इम्तिहाँ करता वो सख़्त-जाँ था कि आरी उसे बना देता गले पे मेरी जो ख़ंजर कोई रवाँ करता बुतों के हिज्र में जलता जो बरहमन का दिल तो शोर सूरत-ए-नाक़ूस हर-ज़बाँ करता कभी न नाक़ा-ए-लैला को तेज़ ले जाता ख़याल-ए-क़ैस-ए-हज़ीं कुछ जो सारबाँ करता उजाड़ देख के गुलशन को ख़ूब रोता मैं गुज़र ख़िज़ाँ में अगर सू-ए-बोस्ताँ करता जो फूल तोड़ता शाख़ों से मौसम-ए-गुल में सितम ये बुलबुल-ए-महज़ूँ पे बाग़बाँ करता बुतान-ए-दैर से करता अगर मोहब्बत मैं तमाम उम्र के आ'माल राएगाँ करता हमारे क़त्ल को क़ातिल न खींचता ख़ंजर दिखा के अबरू-ए-ख़मदार नीम-जाँ करता फँसा के दाम में सय्याद मुझ से बुलबुल को उजाड़ बाग़ में फिर मेरा आशियाँ करता बहार आते ही पीर-ए-मुग़ान-ए-दरिया-दिल ज़रूर दुख़्तर-ए-रज़ नज़्र-ए-मय-कशाँ करता तमाम उम्र गँवाई गुनाह करने में ख़ुदा से ख़ाक 'वफ़ा' ख़्वाहिश-ए-जिनाँ करता