शब को पाज़ेब की झंकार सी आ जाती है बीच में फिर कोई दीवार सी आ जाती है इन का अंदाज़-ए-नज़र देख के महफ़िल में कभी मुझ में भी जुरअत-ए-इज़हार सी आ जाती है इस अदा से कभी चलती है नसीम-ए-सहरी ख़ुश्क पत्तों में भी रफ़्तार सी आ जाती है हम तो उस वक़्त समझते हैं कि आती है बहार दश्त से जब कोई झंकार सी आ जाती है