शबाब हो कि न हो हुस्न-ए-यार बाक़ी है यहाँ कोई भी हो मौसम बहार बाक़ी है कुछ ऐसी आज पिलाई है चश्म-ए-साक़ी ने न होश है न कोई होशियार बाक़ी है पुकारता है जुनूँ होश में जो आता हूँ ठहर ठहर अभी फ़स्ल-ए-बहार बाक़ी है कमाल-ए-इश्क़ तो देखो वो आ गए लेकिन वही है शौक़ वही इंतिज़ार बाक़ी है किसी शराब की हो क्या तलब 'जलील' मुझे मय-ए-अलस्त का अब तक ख़ुमार बाक़ी है