शब-ए-फ़ुर्क़त में यार-ए-जानी की दर्द-ए-पहलू ने मेहरबानी की मुँह दिखाओ बहुत रही तकरार अरिनी और लन-तरानी की जिस को कहते हैं चौदहवीं का चाँद तेरी तस्वीर है जवानी की कमर-ए-यार हो गई ग़ाएब सुन के धूम अपनी ना-तवानी की सूरत-ए-हाल पर हमारे मोहर दाग़ ने ज़ख़्म ने निशानी की सैर-ए-नेमत से दो जहान की क्या दे के शबनम को बूँद पानी की हो गया इश्क़ हुस्न से नागाह पूछते क्या हो ना-गहानी की दिल-बिरिश्ता हुआ जो मिस्ल-ए-कबाब मैं ने तुर्कों की मेहमानी की लब-ए-जाँ-बख़्श के क़रीब वो ख़त शरह है मत्न-ए-ज़िंदगानी की गोश-ज़द होते ही हुई दुश्मन नींद तेरी मिरी कहानी की खींचते उस ग़ज़ाल की सूरत चौकड़ी भूलती है 'मानी' की मुझ को बिठला के यार सोता है आशिक़ी की कि पासबानी की रह गया शौक़-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद पा-ए-ख़ुफ़्ता ने सरगिरानी की मिस्ल-ए-शबनम हूँ साफ़-दिल क़ाने मुझ को दरिया है बूँद पानी की बर्क़ चमकी तो सरफ़राज़ किया अब्र आया तो मेहरबानी की राहत-ए-मर्ग को न पूछ 'आतिश' न रही क़द्र ज़िंदगानी की