शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती दास्ताँ मुख़्तसर नहीं होती जब किसी की नज़र नहीं होती हम को अपनी ख़बर नहीं होती बाज़ औक़ात अपने दिल पर भी अहल-ए-दिल की नज़र नहीं होती डगमगाते नहीं क़दम जिस जा वो तिरी रहगुज़र नहीं होती जिस मसर्रत में ग़म न हो शामिल वो कभी मो'तबर नहीं होती दर्द जब ख़ुद ही अपना दरमाँ हो मिन्नत-ए-चारागर नहीं होती दिल-ए-'मुज़्तर' से जो निकलती है वो सदा बे-असर नहीं होती