शग़्ल मय छोड़िए उठ आइए मय-ख़ानों से शो'ले कुछ दूर नहीं आप के ऐवानों से देखना रंग-ए-गुलिस्ताँ ही बदल डालेंगे अब के पलटे जो ये दीवाने बयाबानों से मुतमइन आप न हों भेज के ज़िंदाँ में हमें इन्क़िलाबात उठा करते हैं ज़िंदानों से वक़्त की बात क़फ़स में भी ठिकाना न रहा हो चला था हमें जब उन्स निगहबानों से साग़र-ए-ज़ब्त छलकने को है ऐ अहद शिकन दिल बहलता नहीं टूटे हुए पैमानों से न मोहब्बत न मुरव्वत न हमिय्यत न ख़ुलूस आज इंसाँ नज़र आते नहीं इंसानों से आग ये किस ने बहारों में लगा दी 'अतहर' उठ रहा है ये धुआँ कैसा गुलिस्तानों से