शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू खुले सहराओं की आवाज़ को डस जाएगा तू जब भी यादों की ज़मिस्तानी हवा चीख़ेगी अपने बर्फ़ीले मकानों में झुलस जाएगा तू सोख़्ता शाम की महमिल हूँ मैं जाता है कहाँ साथ मेरे ही ब-अंदाज़-ए-जरस जाएगा तू आज मैं अपने तआक़ुब में निकल जाऊँगा कल मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को तरस जाएगा तू देख वो दश्त की दीवार है सब का मक़्तल इस बरस जाऊँगा मैं अगले बरस जाएगा तू मैं बुझी महफ़िलों की ऐशट्रे की इक प्यास राख बन कर मिरे होंटों पे बरस जाएगा तू इस क़दर रस्म-ओ-रह-ए-जिस्म 'मुसव्विर' न बढ़ा अपने ही जिस्म को इक रोज़ तरस जाएगा तू