शहर का शहर है बे-ज़ार कहाँ जाऊँ मैं और तंहाई है दुश्वार कहाँ जाऊँ मैं लोग मरते हैं सिसकते हैं मज़े लेते हैं देख कर सुर्ख़ी-ए-अख़बार कहाँ जाऊँ मैं तू जो कहता है कि ये ख़ाक-ए-वतन तेरी है मैं कहाँ पर हूँ मिरे यार कहाँ जाऊँ मैं एक इंकार पे मौक़ूफ़ हैं सारे क़िस्से मैं कहाँ साहब-ए-किरदार कहाँ जाऊँ मैं मुझ को रिश्तों की तिजारत कभी मंज़ूर न थी सोचता हूँ सर-ए-बाज़ार कहाँ जाऊँ मैं पारसा ख़्वाब सभी उस के तसर्रुफ़ में रहे रात भी हो गई बदकार कहाँ जाऊँ मैं कोई मंज़िल तिरी निय्यत से कभी रौशन हो ऐ मिरे क़ाफ़िला-सालार कहाँ जाऊँ मैं एक झँडे हैं सभी रंग जुदा हैं उन के कौन है किस का अलम-दार कहाँ जाऊँ मैं जितने मुंकिर थे तिरे सारे फ़रिश्ते निकले एक मैं तेरा गुनहगार कहाँ जाऊँ मैं मैं किनारे पे खड़ा सोच रहा हूँ 'ख़ुर्शीद' नाव के साथ है मंजधार कहाँ जाऊँ मैं