शहर ख़ामोश है सब नेज़ा-ओ-ख़ंजर चुप हैं कैसी उफ़्ताद पड़ी है कि सितमगर चुप हैं ख़ूँ का सैलाब था जो सर से अभी गुज़रा है बाम-ओ-दर अब भी सिसकते हैं मगर घर चुप हैं चार-सू दश्त में फैला है उदासी का धुआँ फूल सहमे हैं हवा ठहरी है मंज़र चुप हैं मुतमइन कोई नहीं नामा-ए-आमाल से आज मुस्कुराता है ख़ुदा सारे पयम्बर चुप हैं लौट के आती नहीं अब तो सदा-ए-गुम्बद चुप हैं सब दैर-ओ-हरम मस्नद-ओ-मिम्बर चुप हैं मैं जो ख़ामोश था इक शोर था हर महफ़िल में मेरी गोयाई पर अब सारे सुख़नवर चुप हैं