शहर पे छाई हुई ख़तरा-ए-यलग़ार की रात ज़ेब-ए-तारीख़ रहेगी करम-ए-यार की रात शुक्रिया तुम को रहा पास-ए-हिजाब-ए-जानाँ ऐ शब-ए-कूचा-ओ-बर्ज़न दर-ओ-दीवार की रात धूप में कूचा-नवर्दी नहीं जिन का मस्लक उन पे नाज़िल न हुई गेसू-ए-ख़मदार की रात मैं ने देखे हैं वहाँ कितने निज़ाम-ए-शम्सी दिन को किस तरह कहूँ अंजुमन-ए-यार की रात छू न पाएँगे वो रेशम से मुलाएम गेसू सख़्त लगती है जिन्हें वादा-ए-दिल-दार की रात शर्त है दूसरे आलम में रसाई वर्ना रात ज़ाहिद की वही है जो क़दह-ख़्वार की रात क़ाबिल-ए-रश्क है ऐ दोस्त हयात-ए-'मानी' तेरी यादों का शबीना कभी अफ़्कार की रात