शहर सहरा है घर बयाबाँ है दिल किसी अंजुमन का ख़्वाहाँ है मुझ से कहती हैं वो उदास आँखें ज़िंदगी भर की सब थकन याँ है ख़्वाब टूटे पड़े हैं सब मेरे मैं हूँ और हैरतों का सामाँ है हर मसर्रत गुँधी हुई दुख में अर्ज़-ए-अज़दाद दश्त-ए-इम्काँ है तू समुंदर की बे-कनारी देख उस में मेआर-ए-ज़र्फ़ पिन्हाँ है हैं रवा सारे ना-रवा उस को ये नए मौसमों का इंसाँ है मर के पहुँचा तो हूँ लब-ए-दरिया ख़ाली अब तिश्नगी का दामाँ है सब ने 'शाहिद' चुने पसंद के फूल गुल-कदा फिर भी गुल-ब-दामाँ है