शहर-ए-बे-मेहर में मिलता कहाँ दिलदार कोई काश मिल जाता हमें मजमा-ए-अग़्यार कोई चीर दे क़ल्ब-ए-ज़मीं तोड़ दे ज़ंजीर-ए-ज़माँ छेड़ अब ऐसा फ़साना-ए-दिल-ए-नादार कोई नाला-ए-दिल से जिगर होता है छलनी यारब सब्र करती हूँ तो चल जाती है तलवार कोई बुझ गई राह-ए-वफ़ा डूब गई सुब्ह-ए-उमीद ले के अब आएगा क्या वा'दा-ए-दीदार कोई एक एक कर के हुई बज़्म-ए-मोहब्बत ख़ाली नज़र आता नहीं अब यार वफ़ादार कोई जाने किन जब्र की ज़ंजीरों में जकड़ी है हयात हैं कहीं चारा-ए-वहशत के भी आसार कोई ये ज़बाँ-ए-बंदी-ए-एहसास ये जब्र हालात जुर्म है खोले अगर दीदा-ए-बेदार कोई